नमस्कार पाठकों, इस लेख के माध्यम से आप वैभव लक्ष्मी व्रत कथा / Vaibhav Laxmi Vrat Katha PDF प्राप्त कर सकते हैं। हिंदू धर्म के अंतर्गत माता वैभव लक्ष्मी की पूजा को बहुत ही अच्छा माना जाता है यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति धन की तंगी से गुजर रहा है तो उसे यह व्रत अवश्य रखना चाहिए यदि जीवन में कोई कार्य सफल नहीं हो रहा तो उस व्यक्ति को माता के निरंतर 11 या 12 व्रत रखनी चाहिए ऐसा करने से माता की असीम कृपा उस पर होगी।
पुरुष या महिला दोनों में से कोई भी माता वैभव लक्ष्मी जी का व्रत रख सकता है यदि किसी कारण से व्रत शुक्रवार के दिन नहीं रखा जाता तो माता से माफी मांग कर आप उसे अगले शुक्रवार को रख सकते हैं इस लेख के माध्यम से हम आप सभी के लिए वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा लेकर आए हैं आप नीचे दिए गए डाउनलोड बटन पर क्लिक करके पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं।
वैभव लक्ष्मी व्रत कथा | Vaibhav Laxmi Vrat Katha PDF – सारांश
PDF Name | वैभव लक्ष्मी व्रत कथा | Vaibhav Laxmi Vrat Katha PDF |
Pages | 2 |
Language | Hindi |
Source | pdfinbox.com |
Category | Religion & Spirituality |
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माँ वैभव लक्ष्मी व्रत कथा PDF
किसी शहर में कई लोग रहते थे। सभी अपने-अपने काम में लगे हुए थे। किसी को किसी की परवाह नहीं थी। भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकारी जैसे संस्कार कम हो गए। शहर में खराबियां बढ़ने वाली थीं। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी-डकैती वगैरह बहुत से उदाहरण शहर में होते थे। इसके बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते हैं।
ऐसे ही लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी रखी गई थी। शीला धार्मिक प्रकृति की और संतोषी स्वभाव वाली थी। उनके पति भी विवेकी और सुशील था। शीला और उसका पति कभी किसी की बुराई नहीं करते थे और प्रभु भजन में अच्छा समय व्यतीत कर रहे थे। नगर के लोग उनकी गृहस्थी की प्रशंसा करते थे।
देखते ही देखते समय बदल गया। शीला के पति बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठे। अब वह जल्द जल्द करोड़पति बनने के ख्वाब देखने लगेगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर पड़ा पड़ा हुआ बन गया। विए रास्ते पर निकले भिखारी जैसी उसकी हालत हो गई थी। शराब, जुआ, रेस, चरस-गांजा वगैरह बुरे मौसम में शीला का पति भी फंस गया। दोस्तों के साथ उसकी भी शराब की आदत हो गई। इस तरह उसने अपनी सब कुछ रेस-जुए में जीत लिया।
शीला को पति के बर्ताव से बहुत दुख हुआ, वह भगवान पर भरोसा करता है कि सब कुछ सहने लगा है। वह अपना अधिकांश समय प्रभु भक्ति में लगा हुआ है। अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने छुआ। शीला ने द्वार खोला तो देखा कि एक माँजी खा रही थी। उसके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आंखों से मानो अमृत बह रहा था। उसका चेहरा भव्य करुणा और प्यार से छलक रहा था। उसे ही शीला के मन में अपार शांति छाई हुई है। इससे शीला को आंतरिक रोम-रोम तक आनंद की प्राप्ति हुई उसके बाद शीला उस माँजी को पूरे सम्मान के साथ घर लेकर आई जब वह उसे घर लेकर आई तो घर में बैठने के लिए कुछ भी नहीं था तो इसलिए शीला ने उसे एक फटी हुई चद्दर पर बैठाया।
मांजी बोलीं- क्यों शीला! मुझे नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी आता हूं।’ इसके बावजूद शीला कुछ समझ नहीं पा रही थी। फिर मांजी बोलीं- ‘तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आए तो मैं यात्री देखने आया।’ मांजी के इतने मधुर शब्दों को सुनकर शीला का दिल पिघल गया और वह वहां पर बिलख-बिलखकर कर रोने लगी। मांजी ने कहा- ‘बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छाँव जैसे होते हैं। गांभीर्य रखो बेटी! मुझे तुम्हें पूरा काम बताता है।’
मांजी के व्यवहार से शीला को काफी संबल मिला और सुख के आस में उसने मांजी को अपनी पूरी कहानी सुनाई। कहानी सुनकर माँजी ने कहा- ‘कर्म की गति न्यायी होती है। हर इंसान को अपने कर्म छोटे ही लगते हैं। इसलिए तू चिंता मत कर। अब तू कर्मठ है। अब आपके सुख के दिन जरूर मिलेंगे। तू तो मां लक्ष्मीजी का भक्त है। माँ लक्ष्मीजी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममतामयी रौब जमाती हैं। उसने उसे सलाह की उसको लक्ष्मी जी का व्रत करना चाहिए इस व्रत को रखने से सब कुछ ठीक हो जाएगा’
शीला के चारों ओर मांजी ने उन्हें व्रत की पूरी विधि भी बताई। मांजी ने शीला को लक्ष्मी पूजन सामग्री के बारे में भी बताया। मांजी ने कहा- ‘बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है। उसे ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ कहा जाता है। यह व्रत करने वाले की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है।’ शीला यह सुनकर आनंदित हो गई। शीला ने संकल्प करके नींद खोली तो सामने कोई न था। वह जाते-जाते कि मांजी कहां चली गईं? शीला को यह बात समझने में थोड़ी देर लगी कि मांजी और कोई नहीं स्वयं लक्ष्मी जी ही थी ।
दूसरे दिन शुक्रवार था। सबरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनने वाली शीला ने मांजी द्वारा बताए गए विधि से पूरे मन से व्रत किया और महालक्ष्मी जी की आरती की। आखिरी में प्रसाद वितरण हुआ। यह प्रसाद पहले पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में मतभेद हो जाते हैं। उस दिन उसने ना तो शीला को सताया और ना ही शीला को मारा यह सब देखकर शीला बहुत प्रसन्न हो गई और वैभवलक्ष्मी व्रत के व्रत के प्रति उसकी आस्था और बढ़ गई।
शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक वैभवलक्ष्मी व्रत किया। 21वें शुक्रवार को मांजी के अनुसार उद्यापन विधि कर के सात पापों को ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की सात पुस्तकों में संगठित किया। फिर माताजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- ‘हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने की मन्नत की थी, वह व्रत आज पूरा हुआ है। हे मां! मेरी हर विपत्ति दूर करो। हमारा सबका कल्याण करें। जिसे संतति न हो, उसे संतुति देना।
स्वरवती स्त्री का स्वरभक्ति अखंड रखें। आर कुँरी लड़की को मनभावन पति देना। जो आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना। सभी को सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपार है।’ ऐसा बोल कर लक्ष्मीजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छवि को प्रणाम किया। व्रत के प्रभाव से शीला का पति अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा। उसने तुरंत शीला के गिरवी जोड़े और ज्वैलरी के लिए। घर में धन की बाढ़-सी आ गई। घर में पहले जैसा सुख-शांति छाई हुई। ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियां भी विधिपूर्वक वैभवलक्ष्मी व्रत करने लगीं।
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