नमस्कार मित्रों, आज इस लेख के माध्यम से हम आप सभी के लिए सुंदरकांड पाठ हिंदी में PDF / Sunderkand Path in Hindi PDF में प्रदान करने जा रहे हैं। जो भी व्यक्ति सुंदरकांड पाठ को दिल से करता है भगवान हनुमान जी की कृपा सदैव उस पर बनी रहती है और उसे अपने जीवन में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता दोस्तों जैसा कि आप अच्छी तरीके से जानते हैं कि सुंदरकांड काट के निरंतर जाप से हनुमान जी प्रसन्न होते हैं यदि आप अपने जीवन में किसी भी प्रकार की कठिनाई से घिरे हुए हैं तो आपको यह पाठ अवश्य ही करना चाहिए।
अगर आप इसे सच्चे दिल से करते हैं तो आपके परिवार को समृद्धि, शांति, सुख, इत्यादि सब प्राप्त होगा आज इस लेख के माध्यम से हम आप सभी के लिए सुंदरकांड के सभी दोहा और चौपाईयों का हिंदी में वर्णन करने जा रहे हैं। आप यहां से आप इसे आसानी से पढ़ कर निरंतर जाप कर सकते हैं और यदि आप चाहें तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके उसकी पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं ऐसी ही अन्य धार्मिक पोस्ट देखने के लिए क्लिक करें।
सुंदरकांड पाठ हिंदी में PDF | Sunderkand Path in Hindi PDF – सारांश
PDF Name | सुंदरकांड पाठ हिंदी में PDF | Sunderkand Path in Hindi PDF |
Pages | 1 |
Language | Hindi |
Source | pdfinbox.com |
Category | Religion & Spirituality |
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सुन्दरकाण्ड पाठ | Sunderkand PDF in Hindi
|| सुंदरकांड पाठ ||
हनुमानजी का सीता शोध के लिए लंका प्रस्थान
चौपाई (Chaupai)
जामवंतकेबचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंदमूलफलखाई॥
जामवंत जी के वचन सुनकर हनुमान जी बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि यह वचन मुझे बहुत ही अच्छे लगे और उन्होंने कहा कि है मेरे भाइयों! तुम लोग कंद, मूल और फल खाओ, मेरी पीड़ा सहो और मेरी प्रतीक्षा करो।
जब लगि आवौं सीतहिदेखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउहरषि हियँ धरिरघुनाथा॥
जब तक मैं सीताजी को देखकर न लौटूं, क्योंकि कार्य सिद्ध होने पर मन अति प्रसन्न होगा॥ ऐसा कहकर हनुमानजी ने सबको प्रणाम करके रामचन्द्रजी का ध्यान हृदय में रखकर प्रसन्न होकर लंका को प्रस्थान किया।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीरसँभारी।
तरकेउ पवनतनय बलभारी॥
समुद्र के किनारे एक सुंदर पर्वत था। उस पर कूदकर हनुमानजी उत्साह से ऊपर चढ़ गए। बार-बार रामचन्द्रजी का स्मरण करके हनुमानजी बड़े पराक्रम से गर्जना करने लगे॥
जेहिं गिरि चरन देइहनुमंता।
चलेउ सो गापाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एहीभाँति चलेउ हनुमाना॥
कहा जाता है कि हनुमान जी जिस पर्वत पर पैर रखकर ऊपर से कूदे थे, वह पर्वत तुरंत पाताल के भीतर चला गया। जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण चलता है, वैसे ही हनुमानजी वहां से चले जाते हैं॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
हनुमानजी को श्री राम (रघुनाथ) का दूत जानकर समुद्र ने मैनाक नामक पर्वत से कहा, हे मैनाक, तू जा और उसे रोककर श्रम को हरने वाला बन।
मैनाक पर्वत की हनुमानजी से विनती
सोरठा
सिन्धुवचन सुनी कान, तुरत उठेउ मैनाक तब।
कपिकहँ कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिकै॥
जैसे ही समुद्र का वचन उनके कानों में पड़ा, मैनाक पर्वत तुरंत वहां से उठ खड़ा हुआ और हनुमानजी के पास आकर बार-बार हाथ जोड़कर हनुमानजी को प्रणाम किया।
दोहा
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनुमोहिकहाँबिश्राम॥1॥
हनुमानजी ने उन्हें हाथ से छूकर प्रणाम किया और कहा, रामचन्द्रजी का काम किये बिना मेरा विश्राम कहाँ है?
हनुमानजी की सुरसा से भेंट
चौपाई
जातपवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँबलबुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
हनुमानजी को जाते देख देवताओं ने नाग माता सुरसा को उनके बल और बुद्धि का प्रताप जानने के लिए भेजा। उस नाग माता ने आकर हनुमानजी को यह बात बताई।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कहपवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
आज देवताओं ने मुझे यह अच्छा भोजन दिया। यह सुनकर हनुमानजी ने हंसते हुए कहा।
मैं रामचन्द्रजी का काम करके लौटता हूँ और सीताजी का समाचार रामचन्द्रजी को सुनाता हूँ।
तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्यकहउँमोहिजानदे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउहनुमाना॥
तब हे माता ! मैं आकर तुम्हारे मुख में प्रवेश करूंगा। अब तुम मुझे जाने दो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मैं तुमसे सच कहता हूँ जब उन्होंने किसी प्रकार से उन्हें जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा कि तुम देर क्यों करते हो? तुम मुझे नहीं खा सकते
जोजन भरि तेहिंबदनुपसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुतबत्तिसभयऊ॥
सुरसने ने योजना में अपना मुँह फैलाया। हनुमानजी ने दो योजन से अपने शरीर का विस्तार किया। सुरसा ने सोलह (16) योजन में अपना मुख फैलाया। हनुमान जी ने तुरंत अपने शरीर को बत्तीस (32) योजन बड़ा कर लिया।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूपदेखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥
जब सुरसा ने अपना मुंह खोला तो हनुमान जी ने अपने रूप को दुगना कर लिया और उसके बाद जब सुरसा ने अपना मुंह 400 कोस फैलाया हनुमान जी ने तुरंत बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥
वे उसके मुख में घुसकर तुरन्त बाहर निकल आए। तब सुरसा को जाने के लिए कहकर हनुमानजी ने प्रणाम किया। उस समय सुरसा ने हनुमानजी से कहा कि हे हनुमान! जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था, तुम्हारे बल और बुद्धि का रहस्य मुझे मिल गया है।
दोहा
राम काजु सबु करिहहु तुम्हबलबुद्धिनिधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥
आप बल और बुद्धि के भण्डार हैं, अत: आप श्रीरामचन्द्रजी के सभी कार्यों को सिद्ध करेंगे। ऐसा वरदान देकर सुरसा अपने घर चली गई और हनुमानजी प्रसन्न होकर लंका की ओर चल पड़े॥2॥