जगन्नाथ जी व्रत कथा | Jagannath Ji Vrat Katha PDF

नमस्कार पाठकों, इस लेख के माध्यम से आप जगन्नाथ जी व्रत कथा / Jagannath Ji Vrat Katha PDF प्राप्त कर सकते हैं। इस पोस्ट के अंत में जाकर भगवान जगन्नाथ जी की संपूर्ण कथा पढ़ सकते हैं और कथा की पीडीएफ भी डाउनलोड कर सकते हैं भगवान जगन्नाथ भगवान विष्णु के एक अवतार है और हिंदू धर्म के अंतर्गत भगवान जगन्नाथ जी को बहुत ही शक्तिशाली और सर्वदाता माना जाता है संपूर्ण भारतवर्ष में भगवान जगन्नाथ जी की पूजा बड़े ही धूमधाम से की जाती है

जगन्नाथ जी का सबसे प्रसिद्ध मंदिर पुरी उड़ीसा में है और इसी वजह से उड़ीसा में जगन्नाथ रथ यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु जगन्नाथ जी की पूजा करते हैं और बढ़ चढ़कर रथयात्रा में हिस्सा लेते हैं आप यदि सच्चे दिल से भगवान जगन्नाथ जी की पूजा करते हैं तो आपको अपने जीवन में कभी भी किसी भी वस्तु की कमी का सामना नहीं करना पड़ेगा आप इस पोस्ट में जगन्नाथ जी की कहानी को पढ़ सकते हैं और नीचे दिए गए डाउनलोड बटन पर क्लिक करके पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं

 

जगन्नाथ जी व्रत कथा | Jagannath Ji Vrat Katha PDF – सारांश

PDF Name जगन्नाथ जी व्रत कथा | Jagannath Ji Vrat Katha PDF
Pages 12
Language Hindi
Source pdfinbox.com
Category Religion & Spirituality
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जगन्नाथ जी की व्रत कथा PDF | Jagannath Ji Ki Vrat Katha

एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और नींद में उनके मुख से राधा का नाम निकला। रानियों को लगा कि वे प्रभु की इतनी सेवा करती हैं, लेकिन प्रभु को सबसे अधिक राधा जी की याद आती है।
जैसे ही उन्होंने श्रीकृष्ण के मुख से राधा जी का नाम सुना तो रुकमणी जी के साथ अन्य रानियों ने भी रोहिणी जी से भगवान श्री कृष्ण और राधा रानी के प्रेम की कथा और ब्रज लीलाओं का वर्णन करने के लिए प्रार्थना की उनकी प्रार्थना करने की वजह से माता कहानी सुनाने के लिए हां कर देती है

लेकिन यह भी कहा कि श्रीकृष्ण और बलराम को इसकी एक झलक भी नहीं मिलनी चाहिए। निश्चय हुआ कि रोहिणी जी सभी रानियों को एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी। सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मनाया गया ताकि वहां कोई और न आए।

सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि श्रीकृष्ण या बलराम को स्वयं भीतर न आने दें। माँ कहानी कहने लगी। सुभद्रा द्वार पर तैनात थी। थोड़ी ही देर बाद भगवान श्री कृष्ण और बलराम जी वहीं पर पहुंच जाते हैं परंतु सुभद्रा उन्हें अंदर जाने से मना कर देती है।

इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ। वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्तरंग माता द्वारा सुनाई गई ब्रज लीलाओं को आनंदपूर्वक सुनने लगा। बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे।

जैसे ही भगवान श्री कृष्ण बलराम और सुभद्रा जी कथा सुनते हैं तो कथा सुनने से उनके हृदय में ब्रज के प्रति प्रेम जागृत हो जाता है इस वजह से उनके हाथ और पैर ऐसे सिकुड़ने शुरू हो जाते हैं जैसे बचपन में थे। तीनों राधा जी की कथा में इस प्रकार लीन थीं कि वे मूर्ति के समान प्रतीत होने लगीं।

बहुत ध्यान से देखने पर भी उसके हाथ-पैर दिखाई नहीं दे रहे थे। सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहां पहुंचे। भगवान के इस रूप को देखकर चकित रह गए और देखते ही रह गए।

कुछ देर बाद जब नींद टूटी तो नारद जी ने भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम कर कहा- हे प्रभु! मैं चाहता हूँ कि जिस रूप का मैंने आज दर्शन किया है, वह रूप आपके भक्तों को अनंत काल तक पृथ्वी पर देखने को मिले। आप इस रूप में पृथ्वी पर रहते हैं।

भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और कहा कि ऐसा ही होगा। कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करूंगा।

कलियुग के आगमन के बाद, भगवान की प्रेरणा से, मालव राज इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ मंदिर में भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी मूर्तियाँ स्थापित कीं। इसके बाद यह दिलचस्प कहानी आई। राजा इंद्रद्युम्न प्रजा के सर्वश्रेष्ठ रक्षक थे। जनता उन्हें बहुत प्यार करती थी। प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। राजा के मन में कुछ ऐसा करने की इच्छा थी कि सब उसे याद रखें।

संयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात इच्छा प्रकट हुई कि वह एक ऐसा मंदिर बनाएं जो दुनिया में कहीं और न मिले। इंद्रद्युम्न सोचने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित की जाए। राजा के मन में यह इच्छा और विचार दौड़ने लगा। एक रात वह इस बारे में गहराई से सोचते हुए सो गया। राजा को नींद में स्वप्न आया। स्वप्न में उन्हें एक दिव्य वाणी सुनाई दी।

इंद्रद्युम्न ने सुना – राजा आप पहले एक नया मंदिर बनाना शुरू करें। मूर्ति मूरतों की चिंता छोड़ो। सही समय आने पर आप खुद रास्ता देखेंगे। राजा नींद से जागा। सुबह होते ही उसने स्वप्न के बारे में अपने मंत्रियों को बताया।

राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी तट पर एक विशाल मंदिर बनाने का निर्णय लिया गया। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ मंदिर निर्माण की शुरुआत की गई। राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर निर्माण के बारे में शिल्पकारों और कारीगरों को जानकारी दी गई। इसमें योगदान देने सभी पहुंचे। मंदिर निर्माण में दिन रात मेहनत की। कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हो गया।

समुद्र के तट पर एक विशाल मंदिर बन गया, लेकिन मंदिर के अंदर भगवान की मूर्ति की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। राजा को फिर चिंता होने लगी। चिंता की वजह से एक दिन जब राजा मंदिर के गर्भग्रह में बैठा था तो यह सब सोचने से उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

वह चिंता करते हुए भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवान मुझे तो केवल इस बात की चिंता है कि मैं मंदिर में आपकी किस रूप को स्थापित करें राह दिखाओ सपने में तुमने जो संकेत किया था, उसके पूरा होने का समय कब आएगा? मूर्तियों के बिना मंदिर देखकर सब मुझ पर हंसेंगे।

राजा की आंखों से आंसू गिर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करता रहा- प्रभु, मैं आपके आशीर्वाद से सम्मानित हुआ हूं। लोग समझेंगे कि स्वप्न में तेरी आज्ञा का झूठा बोलकर मैंने इतना परिश्रम किया है। हे भगवान, मुझे रास्ता दिखाओ।

राजा उदास मन से अपने महल चला गया। उस रात राजा को फिर स्वप्न आया। स्वप्न में उसे भगवान की वाणी सुनाई दी- राजन्! यहां के पास ही भगवान श्री कृष्ण का एक विग्रह रूप है। तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन प्राप्त होंगे।

इंद्रद्युम्न ने पुजारियों और मंत्रियों को फिर सपना बताया। सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा आसानी से प्राप्त नहीं होगी। उसके लिए हमें शुद्ध मन से काम करना शुरू करना होगा।

राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को भगवान के देवता को खोजने की जिम्मेदारी सौंपी। भगवान की इच्छा से प्रेरित होकर, चारों विद्वान चार दिशाओं में निकल पड़े। विद्यापति उनमें से एक विद्वान थे। वह चारों में सबसे छोटा था। भगवान के देवता की खोज के दौरान उनके साथ कई अलौकिक घटनाएं हुईं।

पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुड़े और उन्हें एक जंगल दिखाई दिया। जंगल भयानक था। विद्यापति श्रीकृष्ण के उपासक थे। उन्होंने श्री कृष्ण को याद किया और उन्हें रास्ता दिखाने की प्रार्थना की।

भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें रास्ता दिखाई देने लगा। वह भगवान का नाम लेकर वन को जा रहा था। उसने जंगल के बीच में एक पहाड़ देखा। पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि के समान मनोरम गीत सुनाई दे रहा था।

विद्यापति संगीत की आत्मा थे। उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी। उन्हें यह संगीत दिव्य लगा। विद्यापति संगीत की तरंगों को खोजते हुए आगे बढ़े। वह जल्द ही पहाड़ी की चोटी पर पहुँच गया। पहाड़ के दूसरी तरफ, उन्होंने एक खूबसूरत घाटी देखी जहां भील नृत्य कर रहे थे। विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। यात्रा के कारण वह थक गया था, लेकिन संगीत ने उसकी थकान दूर कर दी और उसे नींद आने लगी।

अचानक बाघ की दहाड़ सुनकर विद्यापति डर गए। बाघ उनकी ओर दौड़ता हुआ आ रहा था। बाघ को देखकर विद्यापति डर गए और मूर्छित होकर वहीं गिर पड़े। बाघ विद्यापति पर हमला करने ही वाला था तभी एक महिला ने बाघ को – टाइगर कहा..!! वह आवाज सुनकर बाघ चुप हो गया। जब महिला ने उसे वापस लौटने का आदेश दिया तो बाघ वापस लौट आया।

बाघ उस महिला के पैरों के पास लोटने लगा जैसे बिल्ली उसकी पुकार सुनकर खेलती है। लड़की प्यार से बाघ की पीठ थपथपाने लगी और बाघ प्यार से लोटता रहा। वह स्त्री वहाँ उपस्थित स्त्रियों में सबसे सुन्दर थी। वह भीलों के राजा विश्ववसु की इकलौती बेटी ललिता थी। ललिता ने बेहोश विद्यापति की देखभाल के लिए अपनी नौकरानियों को भेजा।

दासियों ने झरने से जल लिया और विद्यापति पर छिड़का। कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी। उन्हें पानी पिलाया गया। यह सब देखकर विद्यापति को कुछ आश्चर्य हुआ। ललिता ने विद्यापति के पास आकर पूछा- तुम कौन हो और भयानक पशुओं से भरे इस वन में कैसे पहुंचे। मुझे अपने आने का उद्देश्य बताओ ताकि मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ।

विद्यापति के मन से बाघ का भय अभी पूरी तरह नहीं गया था। ललिता ने इस बात को भांप लिया और उसे सान्त्वना देकर कहा- विप्रवर तुम मेरे साथ चलो। जब आप स्वस्थ हों, तभी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ें। विद्यापति ने ललिता का पीछा अपनी बस्ती की ओर किया। विद्यापति भीलों के पजा विश्ववसु से मिले और उनसे अपना परिचय दिया। विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बहुत खुशी हुई।

जब विश्ववसु जी ने अनुरोध किया तो विद्यापति वहां कुछ दिनों के लिए अतिथि के रूप में रहने को तैयार हो गए और वह वहां पर भीलो को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे ललिता और विश्ववसु सभी उनके उपदेशों को बड़े ध्यान से सुनते थे। ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग का जन्म हुआ।

विद्यापति को भी यह आभास हो गया था कि ललिता जैसी सुंदरी उनसे प्रेम करने लगी है, लेकिन विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकल गए थे। अचानक एक दिन विद्यापति बीमार पड़ गए। ललिता ने उसकी देखभाल की।

इससे विद्यापति के मन में ललिता के प्रति प्रेम की भावना भी विकसित हो गई। विश्ववसु ने प्रस्ताव दिया कि विद्यापति को ललिता से विवाह करना चाहिए। विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया। कुछ दिन दोनों के लिए खुशी-खुशी बीते। विद्यापति ललिता से विवाह करके खुश थे लेकिन जिस महत्वपूर्ण कार्य के लिए वे आए थे वह अधूरा था। यही चिंता उन्हें बार-बार सताती थी।

इसी बीच विद्यापति को एक खास बात पता चली। विश्ववसु रोज सुबह जल्दी कहीं चले जाते थे और सूर्योदय के बाद ही लौटते थे। स्थिति कितनी भी विकट क्यों न हो, यह नियम कभी नहीं टूटा। विश्ववसु के इस व्रत से विद्यापति को आश्चर्य हुआ। उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई। आखिर विश्ववसु कहां जाता है? जब विद्यापति ने एक दिन यह सब ललिता से पूछा ललिता यह सब सुनकर दंग रह गई।

विद्यापति ने ललिता से अपने पिता के हर सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय से पहले लौटने का रहस्य पूछा। विश्ववसु का शासन कभी नहीं टूटा, चाहे कितनी भी विकट स्थिति क्यों न हो। ललिता के सामने धर्मसंकट आ गया। वह अपने पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी, लेकिन पति जो पूछ रहा था, वह उसके वंश की गुप्त परंपरा से संबंधित था, जिसे खोलना संभव नहीं था।

ललिता कहती है कि हे मेरे स्वामी यह हमारे कुल का एक बहुत ही पुराना रहस्य है जो हम किसी के सामने प्रकट नहीं कर सकते परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको यह सब अपने कुल का व्यक्ति मान कर बताऊंगी।

यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है, जिसके अंदर हमारे कुलदेवता विराजमान हैं। हमारे सभी पूर्वज उनकी पूजा करते रहे हैं। यह पूजा निर्विघ्न चलती रहनी चाहिए। पिता रोज सुबह नियमित रूप से उसी पूजा में जाते हैं। विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह उनके कुलदेवता के भी दर्शन करना चाहता है। ललिता ने कहा- यह संभव नहीं है। मेरे पिता यह सुनकर क्रोधित होंगे कि कोई हमारे कुलदेवता के बारे में जानना चाहता है।

विद्यापति की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। वह तरह-तरह से प्रेम की कसम खाकर ललिता को मनाने लगा। अंत में ललिता ने कहा कि वह अपने पिता से आपको देवता के दर्शन कराने का अनुरोध करेगी।ललिता ने सारी बात अपने पिता को बता दी। उसकी त्योरी चढ़ गयी। जब ललिता ने कहा कि मैं आपकी इकलौती संतान हूं। तुम्हारे बाद देवता की पूजा का उत्तरदायित्व मेरा होगा। इसलिए मेरे पति का यह अधिकार है क्योंकि आगे भी उनकी पूजा करनी पड़ेगी।इस तर्क के आगे विश्ववसु झुक गए। उन्होंने कहा- किसी को भी गुफा के दर्शन तभी कराए जा सकते हैं, जब वह भगवान की पूजा का जिम्मा अपने हाथों में ले। जब विद्यापति के द्वारा अपना उत्तरदायित्व स्वीकार किया जाता हैं, तो विश्ववसु देवता के दर्शन देने के लिए हां देते हैं।दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विश्ववसु विद्यापति का दाहिना हाथ पकड़कर आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा की ओर चले। विद्यापति ने रास्ते में ही राई मुट्ठी में रख ली थी। गुफा के पास पहुंचकर विश्ववसु रुके और गुफा के पास पहुंचे। विश्ववसु ने विद्यापति की काली पट्टी हटा दी। उस गुफा में नीला प्रकाश चमक उठा। विद्यापति ने हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप देखा।

विद्यापति खुश हो गए। उसने भगवान को देखा। दर्शन के बाद विद्यापति का जाना ही नहीं था। लेकिन विश्ववसु ने लौटने का आदेश दिया। फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई और दोनों वापस लौट गए।

लौटकर ललिता ने विद्यापति से पूछा। विद्यापति ने गुफा में दिखाई देने वाले अलौकिक दृश्य के बारे में अपनी पत्नी को बताना उचित नहीं समझा। उसने परहेज किया। यह पहले से ही ज्ञात था कि विश्ववसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं।

विद्यापति को आभास हुआ कि जिस देवता के बारे में महाराज ने स्वप्न में देववाणी सुनी थी, वह इस मूर्ति के बारे में है। विद्यापति सोचने लगे कि किसी तरह उन्हें इस मूर्ति को राजधानी पहुंचना होगा। एक ओर वह मूर्ति को गुफा से ले जाने की सोच रहा था, तो दूसरी ओर भील राज और उसकी पत्नी के विश्वासघात के विचार से वह परेशान था। विद्यापति धर्म और अधर्म के बारे में सोचते रहे।

तब यह विचार आया कि यदि विश्ववसु ने वास्तव में उस पर विश्वास किया होता, तो वह उसे आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा में नहीं ले जाता। इसलिए उसके साथ विश्वासघात का सवाल ही नहीं उठता। उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया।

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता को देखने जाना चाहता है। वे उसकी चिंता करेंगे। जब ललिता भी उनके साथ जाने को तैयार हो गई तो विद्यापति ने उन्हें यह कहकर मना लिया कि यदि वे शीघ्र लौटेंगे तो वे उन्हें ले जाएंगे।

ललिता मान गई। विश्ववसु ने उसके लिए एक घोड़े की व्यवस्था की। अभी तक सरसों के बीज से पौधे निकले थे। उन्हें देखकर विद्यापति गुफा में पहुंचे। उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना करने के बाद अपनी मूर्ति को उठाया और अपने थैले में रख लिया।

शाम तक वह राजधानी पहुंचा और सीधे राजा के पास गया। उसने दिव्य मूर्ति राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनाई। राजा ने बताया कि उसे कल स्वप्न आया कि प्रातः काल समुद्र में एक कुण्ड बहता हुआ आयेगा। उस ठूंठ को तराश कर भगवान की मूर्ति बनाओ, जिसका हिस्सा तुम्हें मिलने वाला है। वे भगवान श्री विष्णु के स्वरूप होंगे। तुम जो मूर्ति लाई हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है। दोनों आश्वस्त थे कि उनकी खोज समाप्त हो गई थी।

राजा ने कहा कि जब हम भगवान की भेजी हुई लकड़ी से इस मूर्ति का बड़ा रूप बना लेंगे, तब तुम अपने ससुर से मिलकर मूर्ति उन्हें वापस कर दो। वह अपने कुलदेवता की इतनी विशाल मूर्ति को एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर प्रसन्न होंगे।

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति और अपने मन्त्रियों के साथ समुद्र के तट पर पहुँचे। स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुण्ड जल में बहता हुआ आ रहा था। उसे देखकर सब खुश हो गए। दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस ठूँठ को खींचने पहुँचे। फंदे को मोटी रस्सियों से बांधकर खींचा जाने लगा, लेकिन फंदा टस से मस नहीं हुआ। और भी लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोगों और नावों के इस्तेमाल के बाद भी ठूंठ को नहीं हिलाया जा सका।

राजा का मन उदास हो गया। सेनापति ने ट्रंक खींचने के लिए एक लंबी सेना भेजी। पूरे सागर में सैनिक दिखाई दे रहे थे, पर सब मिलकर ठूँठ को भी अपनी जगह से हिला नहीं पा रहे थे। सुबह से रात तक।अचानक राजा ने काम बंद करने का आदेश दिया। उन्होंने विद्यापति को अकेले में लिया और कहा कि उन्हें समस्या का कारण पता चल गया है। राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे। राजा ने विद्यापति को चुपके से कहीं जाने को कहा।

राजा इंद्रद्युम्न ने कहा कि अब भगवान की मूर्ति बनाई जाएगी। आपको बस एक काम करना है। भगवान श्री कृष्ण ने राजा को क्या संकेत दिया कि उसके सारे संकट समाप्त हो गए। राजा इंद्रद्युम्न भगवान की प्रेरणा से समझने लगे कि भगवान के देवता के लिए जल में प्रवाहित लकड़ी का ठूंठ क्यों नहीं हिला। राजा ने विद्यापति को बुलाकर कहा- जो दिव्य मूर्ति तुम अपने साथ लाए हो, जिसकी अब तक पूजा होती रही है, उसे तत्काल उनसे मिलकर क्षमा मांगनी होगी। इसे छुए बिना यह घुंडी आगे नहीं बढ़ पाएगी।

राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्ववसु से मिलने आए। पहाड़ की चोटी से राजा ने जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता देखते ही रह गए। दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे।

यहाँ विश्ववसु अपनी नियमित दिनचर्या के अनुसार अपने कुल देवता की पूजा करने के लिए गुफा में गए। जब उसने वहां भगवान की मूर्ति को गायब देखा तो वह समझ गया कि उसके दामाद ने यह चाल चली है।

विश्ववसु ने लौटकर सारी बात ललिता को बता दी। विश्ववसु पीड़ा से भरे घर के आंगन में गिर पड़े। ललिता अपने पति के विश्वासघात से दुखी थी और उसने इसका कारण स्वयं को समझा। दिन भर पिता-पुत्री विलाप करते रहे।

उन दोनों ने अन्न के एक दाने को हाथ तक नहीं लगाया। विश्ववसु अगली सुबह उठे और हमेशा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की ओर चल दिए। वह जानता था कि भगवान की मूर्ति वहां नहीं है, फिर भी उसके पैर उसे गुफा की ओर खींचते रहे।

ललिता और रिश्तेदारों ने भी विश्ववसु का अनुसरण किया। विश्ववसु गुफा के भीतर पहुंचे। जिस चट्टान पर भगवान की मूर्ति होती थी, उसके पास खड़े होकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए। फिर उस ऊँची चट्टान पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। उसके पीछे प्रजा भी रो रही थी।

एक भील युवक गुफा के पास दौड़ता हुआ आया और उसने बताया कि उसने महाराज और विद्यापति को बस्ती की तरफ से आते देखा है। यह सुनकर सभी सन्न रह गए। वे गुफा से बाहर विश्ववसु राजा का स्वागत करने के लिए आए परन्तु उनकी आंखे अभी भी आँशु से भरी हुई थी।

राजा इंद्रद्युम्न विश्ववसु के पास आए और उन्हें गले लगा लिया। राजा ने कहा – भीलराज, मैं आपका दामाद नहीं बल्कि आपके कुलदेवता की मूर्ति का चोर हूं। उसने अपने महाराज की आज्ञा का पालन किया। यह सुनकर सभी सन्न रह गए।

विश्ववसु ने राजा को गद्दी दे दी। राजा ने उस विश्ववसु को आदि से अंत तक सारी बात बता दी और कहा कि यह सब क्यों करना पड़ा। तब राजा ने उन्हें अपने सपने के बारे में और फिर जगन्नाथ पुरी में समुद्र के किनारे एक मंदिर के निर्माण के बारे में बताया।

राजा ने विश्ववसु से प्रार्थना की – भील सरदार विश्ववसु, आपके वंश के लोग कई पीढ़ियों से भगवान की मूर्ति की पूजा करते आ रहे हैं। आपकी मदद की जरूरत है ताकि हर कोई भगवान की उस मूर्ति को देख सके।

हम इस दिव्य मूर्ति को भगवान द्वारा भेजे गए लकड़ी के लट्ठे से बनी मूर्ति के अंदर सुरक्षित रखना चाहते हैं। पुरी के मंदिर में अपने परिवार की मूर्ति स्थापित करने की अनुमति दें। अगर आप उस ठूंठ को छूएंगे तभी वह हिलेगा।

विश्ववसु मान गए। राजा विश्ववसु को लेकर परिवार सहित समुद्र के किनारे पहुंचे। विश्ववसु ने स्टंप को छुआ। उसके छूते ही कुण्ड स्वतः ही तट की ओर तैरने लगा। राजा के सेवक उस ठूंठ को महल में ले गए।

अगले दिन राजा ने मूर्तिकारों और शिल्पकारों को बुलाया और उनसे पूछा कि इस ठूंठ से कौन सी मूर्ति बनाना शुभ होगा। मूर्तिकारों ने कहा कि वे पत्थर की मूर्ति बनाना तो जानते हैं लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाना नहीं जानते।

एक नये उपद्रव के जन्म से राजा फिर चिन्तित हो उठा। उसी समय वहां एक वृद्ध आया। उसने राजा से कहा – इस मंदिर में भगवान श्री कृष्ण को अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान समझो। यही इस नियति की निशानी है।

राजा को उस बूढ़े की बात से तसल्ली तो हुई लेकिन समस्या यह थी कि मूर्ति कैसे बनाई जाए? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में निपुण हूं। मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूँगा और मूर्तियाँ बनाऊँगा। किन्तु मेरी एक शर्त है।

राजा ने प्रसन्न होकर उसका हाल पूछा। बूढ़ा शिल्पकार बोला- भगवान की मूर्ति बनाने का कार्य मैं एकान्त में करूँगा। मैं यह काम बंद कमरे में करूंगा। काम पूरा करने के बाद मैं खुद दरवाजा खोलकर बाहर आ जाउंगा। इस बीच मुझे किसी ने नहीं बुलाया।

राजा मान गया लेकिन उसकी एक चिंता थी और उसने कहा- अगर कोई तुम्हारे पास नहीं आएगा तो ऐसे में तुम्हारे खाने-पीने का इंतजाम कैसे होगा? शिल्पी ने कहा- मैं तब तक कुछ नहीं खाती-पीती हूं जब तक मेरा काम पूरा नहीं हो जाता।

उस वृद्ध शिल्पकार ने 21 दिन तक अपने आप को राज मंदिर के एक विशाल कमरे में बंद कर लिया और काम करने लगा। अंदर से आवाजें आ रही थीं। महारानी गुंडिचा देवी अक्सर हथौड़े और छेनी की आवाजें दरवाजे की आवाज सुन कर सुना करती थीं।

रानी हमेशा की तरह कमरे के दरवाजे के पास खड़ी थी। 15 दिन बीत गए थे कि उसे कमरे से आवाज सुनाई देना बंद हो गई। जब मूर्तिकार के चलने की आवाज नहीं आई तो रानी को चिंता हुई।

उन्हें लगा कि वह बूढ़ा आदमी है, खाता-पीता भी नहीं है, कहीं उसके साथ कुछ अनहोनी न हो जाए। व्याकुल होकर रानी ने द्वार खोलकर भीतर झाँका।

रानी गुंडिचा देवी ने मूर्तिकार को दिया वचन इस प्रकार तोड़ा। मूर्ति कर अभी भी मूर्तियाँ बना रहे थे। लेकिन रानी को देखते ही वह गायब हो गया। मूर्ति बनाने का काम अभी पूरा नहीं हुआ था। हाथ-पैर का निर्माण पूरा नहीं हुआ था।

देवताओं के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा स्वयं एक वृद्ध शिल्पकार का रूप धारण कर आए थे। उनके गायब होते ही मूर्तियां अधूरी रह गईं। इसलिए ये मूर्तियां आज भी वैसी ही हैं। केवल उन्हीं मूर्तियों को मंदिर में स्थापित किया गया।

और ऐसा कहा जाता है कि विश्ववसु उस छोटे बालिके के वंशज थे जिन्होंने गलती से भगवान श्री कृष्ण को मार डाला था और भगवान कृष्ण भगवान के पवित्र अवशेषों की पूजा किया करते थे और इन अवशेषों को मूर्तियों में छुपा कर रखा गया था ललिता और विद्यापति के सभी वंशज को दैत्यपति कहा जाता है और अब तक भी उनका परिवार पूजा करता है।

 

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