मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत कथा | Margashirsha Purnima Vrat Katha PDF

नमस्कार दोस्तों, आज इस पोस्ट के माध्यम से हम आप सभी के लिए मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत कथा / Margashirsha Purnima Vrat Katha PDF लेकर आए हैं। मार्गशीर्ष के महीने को दान पुण्य का महीना कहा जाता है। धार्मिक ग्रंथो के अनुसार मार्गशीर्ष पूर्णिमा का व्रत बहुत ही पवित्र और शक्तिशाली है। यह व्रत भगवान विष्णु जी को समर्पित है। यह पूर्णिमा भारत में बहुत सी जगह पर सांस्कृतिक उत्सव के रूप में भी मनाई जाती है। लोग इस दिन भजन कीर्तन के साथ दान पुण्य कर भगवान विष्णु से आराधना करते हैं। इस व्रत में भगवान विष्णु और चंद्र देव जी की पूजा का प्रावधान है।

इस दिन पूजा के पश्चात भगवान सत्यनारायण की कथा का पाठ भी करना शुभ होता है। जो व्यक्ति अपने कर्मों को अच्छा रखते हुए भगवान की पूर्ण आस्था और श्रद्धा के साथ पूजा कर कथा का पाठ करता है व्रत कोअच्छे से रखता है उसके जीवन से संपूर्ण कष्ट समाप्त हो जाते हैं। और उसे मनचाही इच्छा की प्राप्ति होती है। आप इस पोस्ट के माध्यम से मार्गशीर्ष पूर्णिमा की कथा / Margashirsha Purnima Ki Katha को संपूर्ण पढ़ सकते हैं पोस्ट के लास्ट में जाकर डाउनलोड पीडीएफ बटन पर क्लिक करके कथा को पीडीएफ फॉर्मेट में डाउनलोड करें। किसी भी कथा को प्राप्त करने के लिए कमेंट बॉक्स में उसका नाम लिखें।

मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत कथा | Margashirsha Purnima Vrat Katha PDF – सारांश

कथा के अनुसार एक बार नारद जी तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे बोले, हे प्रभु, पृथ्वी पर बहुत से लोग बहुत कष्ट भोग रहे हैं। उन्होंने भगवान से कोई सरल उपाय बताने को कहा, जिससे लोगों का कल्याण हो। यह सुनकर भगवान हरि ने कहा कि जो भी व्यक्ति सांसारिक सुख और मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसे भगवान सत्यनारायण की पूजा और व्रत करना चाहिए। तब भगवान विष्णु ने सत्यनारायण व्रत के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि जिसने भी यह व्रत किया है, वह मेरी बात सुनो।

सत्यनारायण की एक कथा के अनुसार पूर्व समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवादी और संयमी व्यक्ति था। वह प्रतिदिन देवताओं के स्थानों पर जाता और गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली थी और सती साध्वी थी। उसके पश्चात उन दोनों ने भद्राशिला नदी के तट पर जाकर सत्यनारायण भगवान जी का व्रत किया और इस समय पर साधु नाम का एक व्यापारी वहां पर पहुंच गया उस व्यापारी के पास व्यापार करने के लिए बहुत धन था। राजा को व्रत करते देख उसने विनयपूर्वक पूछा, हे राजन! आप भक्तिपूर्वक क्या कर रहे हैं? मैं इसे सुनना चाहता हूँ, अतः कृपया मुझे बताइए। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी से इस संतान देने वाले व्रत के बारे में कहा और कहा कि जब मेरे यहाँ संतान होगी, तब मैं यह व्रत करूँगा।

साधु ने ऐसी बातें अपनी पत्नी लीलावती से कहीं। एक दिन लीलावती अपने पति के साथ प्रसन्न होकर सांसारिक धर्म में लग गई और भगवान सत्यनारायण की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। वह दिन-प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा के समान बढ़ने लगी। माता-पिता ने अपनी पुत्री का नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने मधुर शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने जो भगवान सत्यनारायण का व्रत करने का संकल्प किया था, उसका समय आ गया है, आप इस व्रत को करें।

साधु ने कहा, हे प्रिये! मैं इसके विवाह पर यह व्रत करूँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वस्त करके वे नगर को चले गए। कलावती अपने पिता के घर रहकर बड़ी हुई। एक बार साधु ने नगर में अपनी पुत्री को उसकी सहेलियों के साथ देखा तो उसने तुरन्त दूत को बुलाया और कहा कि अपनी पुत्री के लिए कोई योग्य वर ढूंढ़ो। साधु के वचन सुनकर दूत कंचन नगर पहुंचा और वहां की खातिरदारी करके उस कन्या के योग्य वणिक पुत्र को ले आया। उपयुक्त वर देखकर साधु ने अपने संबंधियों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह करा दिया, लेकिन दुर्भाग्यवश साधु ने फिर भी भगवान सत्यनारायण का व्रत नहीं किया। इसके बाद वह अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए चला गया। चोरी के आरोप में राजा चंद्रकेतु ने उसे दामाद सहित कारागार में डाल दिया। बाद में घर में भी चोरी हो गई। पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती को भीख मांगने पर विवश होना पड़ा।

एक दिन कलावती ने किसी के घर भगवान सत्यनारायण की पूजा होते देखी और घर आकर अपनी मां को बताया। तब मां ने अगले दिन भक्तिपूर्वक व्रत और पूजन किया और भगवान से अपने पति और दामाद के शीघ्र लौटने का वरदान मांगा। श्री हरि प्रसन्न हुए और राजा को स्वप्न में आदेश दिया कि दोनों बंदियों को मुक्त कर दो। राजा ने उन्हें धन-धान्य देकर विदा किया। घर आकर वह जीवन भर पूर्णिमा और संक्रान्ति को सत्यव्रत का पालन करता रहा, जिसके फलस्वरूप उसने सांसारिक सुखों को भोगकर मोक्ष प्राप्त किया।

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