अन्नपूर्णा माता व्रत कथा | Annapurna Mata Vrat Katha PDF

नमस्कार दोस्तों, आज इस पोस्ट के माध्यम से हम आप सभी के लिए अन्नपूर्णा माता व्रत कथा / Annapurna Mata Vrat Katha PDF लेकर आए हैं। हिंदू धर्म के अंतर्गत यह व्रत माता अन्नपूर्णा देवी को समर्पित है। मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष पंचमी के दिन माता अन्नपूर्णा का व्रत प्रारंभ हो जाता है और यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी के दिन समाप्त होता है। यह व्रत17 दिन का होता है परंतु माता के बहुत से भक्तजन इसे 21 दिन तक भी पालन करते हैं।

जिस भी व्यक्ति के घर में माता का वास होता है वहां कभी भी भंडार खाली नहीं होते और घर से दरिद्रता 100 कदम दूर रहती है। आप पूर्ण विधि विधान से यह व्रत रखकर माता जी की पूजा करते हैं और कथा का पाठ करते हैं तोआपके परिवार पर निश्चित ही माता की कृपा होगी और आपका भंडारघर खुशियों से भर जाएगा। आप इस पोस्ट के माध्यम से अन्नपूर्णा माता की व्रत कथा / Annpurna Mata ki vrat katha को पढ़ सकते हैं। कथा को पीडीएफ फॉर्मेट में डाउनलोड करने के लिए पोस्ट के लास्ट में दिख रहे हैं डाउनलोड पीडीएफ बटन पर अवश्य क्लिक करें।

अन्नपूर्णा माता व्रत कथा | Annapurna Mata Vrat Katha PDF – सारांश

PDF Nameअन्नपूर्णा माता व्रत कथा / Annapurna Mata Vrat Katha PDF
Pages4
LanguageHindi
Our Websitepdfinbox.com
CategoryReligion & Spirituality
Sourcepdfinbox.com
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एक समय की बात है, काशी निवासी धनंजय की सुलक्षणा नाम की एक पत्नी थी। उसके पास अन्य सभी सुख-सुविधाएँ थीं, दरिद्रता ही उसके दुःख का एकमात्र कारण थी। यह दुःख उसे हर समय सताता रहता था। एक दिन सुलक्षणा ने अपने पति से कहा- स्वामी! आप कुछ काम करेंगे तो काम बन जाएगा। कब तक ऐसे ही चलता रहेगा?

जो भी बातें सुलक्षणा ने धनंजय से कहीं वह उसके मन में बैठ गईऔर उसी दिन धनंजय भगवान विश्वनाथ शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए बैठ गया और भगवान से प्रार्थना करते हुए बोला कि हे देवाधिदेव विश्वेश्वर! मैं कोई पूजा-पाठ नहीं जानता, बस आपके भरोसे बैठा हूँ। इतनी विनती करने के बाद वह दो-तीन दिन तक भूखा-प्यासा बैठा रहा। यह देखकर भगवान शंकर ने उसके कान में फुसफुसाया अन्नपूर्णा! अन्नपूर्णा! अन्नपूर्णा!

इस प्रकार तीन बार। यह कौन है, इसने क्या कहा? धनंजय यह सोच ही रहा था कि उसने मंदिर से ब्राह्मणों को आते देखा और पूछा- पंडितजी! अन्नपूर्णा कौन है?

ब्राह्मणों ने कहा- तुमने अन्न खाना छोड़ दिया है, इसलिए तुम केवल अन्न के बारे में ही सोचते हो। घर जाकर भोजन करो।

धनंजय घर गया, अपनी पत्नी को सारी बात बताई, उसने कहा- नाथ! चिंता मत करो, यह मंत्र स्वयं शंकरजी ने दिया है। वे स्वयं ही इसे प्रकट करेंगे। तुम जाकर पुनः उनका पूजन करो। धनंजय पुनः उसी प्रकार पूजन के लिए बैठ गया। रात्रि में शंकरजी ने आदेश दिया और कहा- तुम पूर्व दिशा की ओर जाओ।

वह अन्नपूर्णा का नाम जपता रहा और मार्ग में फल खाता रहा, झरनों का जल पीता रहा। इस प्रकार वह कई दिनों तक चलता रहा। वहां उसने चांदी के समान चमकते हुए वन की शोभा देखी। उसने एक सुंदर सरोवर देखा, जिसके तट पर अनेक अप्सराएं समूह में बैठी हुई थीं। वे कथा सुन रही थीं और साथ मिलकर माता अन्नपूर्णा से बार-बार यही कह रही थीं।

यह अगहन (मार्गशीर्ष) मास की शुक्ल रात्रि थी और आज से ही व्रत प्रारंभ हो रहा था। जिस शब्द की खोज में वह निकला था, वह उसे वहीं सुनाई दे गया। धनंजय ने उनके पास जाकर पूछा- हे देवियों! आप लोग क्या कर रही हैं? वे सब बोलीं- हम सब माँ अन्नपूर्णा का व्रत करते हैं।

धनंजय ने पूछा- व्रत करने और पूजन करने से क्या होता है? क्या किसी ने ऐसा किया है? यह कब करना चाहिए? यह कैसा व्रत है और इसकी विधि क्या है? विस्तार से बताओ।

वे बोलीं- यह व्रत सभी कर सकते हैं। इक्कीस दिन तक 21 गांठों वाला धागा लेना चाहिए। यदि 21 दिन न कर सकें तो एक दिन व्रत करें, यदि यह भी न कर सकें तो कथा सुनें और प्रसाद ग्रहण करें। निराहार रहें और कथा कहें, यदि कथा सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्ते रखें, सुपारी या घृत कुमारी (ग्वारपाठ) का वृक्ष सामने रखें और दीपक को साक्षी मानकर रखें और सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव को कथा कहे बिना मुंह में अन्न न डालें। यदि किसी दिन भूल से कुछ गिर जाता है तो फिर एक दिन अधिक व्रत करें व्रत वाले दिन बिल्कुल भी क्रोध न करें और किसी से झूठ ना बोले।

धनंजय ने कहा- इस व्रत को करने से क्या होगा? वे कहने लगे- ऐसा करने से अंधे को आंखें मिल जाएंगी, लंगड़े को हाथ मिल जाएंगे, दरिद्र को धन मिल जाएगा, बांझ को संतान मिल जाएगी, मूर्ख को विद्या मिल जाएगी, जो भी व्यक्ति जिस कामना से व्रत करता है, मां उसकी मनोकामना पूर्ण करती हैं। वह कहने लगा- बहनों! मेरे पास भी धन नहीं है, मेरे पास विद्या नहीं है, मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं एक दरिद्र ब्राह्मण हूं, क्या तुम मुझे इस व्रत का धागा दोगी? हां भाई, तुम्हारा कल्याण हो, हम तुम्हें अवश्य देंगे, यह लो इस व्रत का शुभ धागा। धनंजय ने व्रत रखा। व्रत पूर्ण हुआ, तभी सरोवर से हीरे-मोती से जड़ी 21 खंड की स्वर्ण सीढ़ियां प्रकट हुईं। धनंजय जय अन्नपूर्णा अन्नपूर्णा कहता रहा। इस प्रकार वह कई सीढ़ियां उतरा और क्या देखता है कि करोड़ों सूर्यों से जगमगाता अन्नपूर्णा का मंदिर है, उसके सामने मां अन्नपूर्णा स्वर्ण के सिंहासन पर विराजमान हैं। भगवान शंकर भिक्षा के लिए सामने खड़े हैं। देवांगनाएं पंखा झल रही हैं। अनेक अस्त्र-शस्त्र लेकर पहरा दे रही हैं। धनंजय दौड़कर जगदम्बा के चरणों में गिर पड़ा। देवी ने उसके हृदय की पीड़ा समझ ली। धनंजय ने कहा- माता! आप तो अन्तर्यामी हैं। मैं अपनी दशा आपसे क्या कहूँ? माता ने कहा- मैंने अपना व्रत किया है, जाओ, संसार तुम्हारा स्वागत करेगा। माता ने धनंजय की जिह्वा पर बीज मंत्र लिख दिया। अब उसके रोम-रोम में ज्ञान प्रकट हो गया। फिर वह क्या देखता है कि वह काशी विश्वनाथ के मंदिर में खड़ा है। माता का आशीर्वाद लेकर धनंजय घर आया। उसने सुलक्षणा को सारी बात बताई। माता के आशीर्वाद से उसके घर में धन बरसने लगा। छोटा-सा घर भी बहुत बड़ा माना जाने लगा। जैसे छत्ते में मक्खियाँ इकट्ठी हो जाती हैं, वैसे ही अनेक सम्बन्धी आकर उसकी प्रशंसा करने लगे। वे कहने लगे- इतना धन और इतना बड़ा घर, यदि सुन्दर सन्तान न हो, तो इस आय का आनन्द कौन लेगा? सुलक्षणा के कोई संतान नहीं है, अतः तुम्हें दूसरा विवाह कर लेना चाहिए।

अनिच्छा के बावजूद धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा और सती सुलक्षणा को सहपत्नी का दुःख सहना पड़ा। दिन बीतते गए और फिर अगहन का महीना आ गया। सुलक्षणा ने अपने नवविवाहित पति से कहा कि व्रत के प्रभाव से हम सुखी हो गए हैं। इसलिए इस व्रत को नहीं छोड़ना चाहिए। यह देवी मां की कृपा है कि हम इतने समृद्ध और सुखी हैं। सुलक्षणा की बातें सुनकर धनंजय उसके घर आया और व्रत करने बैठ गया।

नई बहू को इस व्रत के बारे में पता नहीं था। वह धनंजय के आने का इंतजार कर रही थी। दिन बीतते गए और व्रत पूरा होने में तीन दिन शेष थे, तभी नई बहू को यह खबर मिली। उसके मन में ईर्ष्या की ज्वाला जलने लगी थी। वह सुलक्षणा के घर पहुंची और वहां भगदड़ मचा दी। वह धनंजय को अपने साथ ले गई। नए घर में धनंजय थोड़ी देर के लिए सो गया। उसी समय नई बहू ने अपने व्रत का धागा तोड़कर अग्नि में डाल दिया। अब तो देवी माँ का क्रोध भड़क उठा। अचानक घर में आग लग गई, सब कुछ जलकर राख हो गया। सुलक्षणा को पता चला और वह अपने पति को वापस अपने घर ले आई। नई बहू नाराज होकर अपने पिता के घर चली गई।

सुलक्षणा, जो अपने पति को परमेश्वर मानती थी, बोली- नाथ! आप चिंता न करें। माता की कृपा असाधारण है। पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती। अब तुम श्रद्धा और भक्ति से पूजन करना शुरू करो। वे अवश्य ही हमारा कल्याण करेंगी। धनंजय फिर माता के पीछे-पीछे चल पड़ा। तभी वहाँ सरोवर की सीढ़ियाँ दिखाई दीं, वह माँ अन्नपूर्णा को पुकारता हुआ नीचे चला गया। वहाँ जाकर वह माता के चरणों में गिरकर रोने लगा।

माता प्रसन्न होकर बोली- मेरी यह स्वर्ण मूर्ति ले जाओ, इसका पूजन करो, तुम पुनः सुखी हो जाओगे, जाओ, तुम्हें मेरा आशीर्वाद है। तुम्हारी पत्नी सुलक्षणा ने श्रद्धापूर्वक मेरा व्रत किया है, मैंने उसे पुत्र दिया है। जब धनंजय ने आंखें खोलीं तो उसने स्वयं को काशी विश्वनाथ के मंदिर में खड़ा पाया। वहां से वह उसी तरह घर वापस आया। इधर सुलक्षणा के दिन बढ़ते गए और एक महीना पूरा होते ही एक पुत्र का जन्म हुआ। गांव में आश्चर्य की लहर दौड़ गई।

इस प्रकार उसी गांव के एक निःसंतान सेठ को जब पुत्र की प्राप्ति हुई तो उसने माता अन्नपूर्णा का मंदिर बनवाया। माता जी ने बड़े धूमधाम से वहां जाकर यज्ञ किया और धनंजय को मंदिर का आचार्य पद दिया। उन्होंने जीविका के लिए मंदिर की दक्षिणा और रहने के लिए एक सुंदर भवन दिया। धनंजय अपनी पत्नी और पुत्र के साथ वहीं रहने लगा। माता जी के प्रसाद से उसे खूब आमदनी होने लगी। उधर नई बहू के पिता के घर में लूट हो गई, सब कुछ लुट गया और वह भीख मांगकर अपना पेट भरने लगा। जब सुलक्षणा को यह बात पता चली तो उसने उसे बुलाकर अलग घर में रखा और उसके खाने-पीने और कपड़ों का प्रबंध किया। माता जी के आशीर्वाद से धनंजय, सुलक्षणा और उसका बेटा सुखपूर्वक रहने लगे।

जैसे माता जी ने उनके भण्डार भरे हैं, वैसे ही सबके भण्डार भरे।

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